बरसात की वह रात – Sexy Kahani

Sexy Kahani

रात गहराती जा रही थी. मेरा मन घबरा रहा था. भैया-भाभी आज सुबह मुंह अंधेरे ही उज्जैन के लिए निकल गए थे. बुआ ने उज्जैन से फ़ोन किया था,‘आज दिव्या सोमवार है. आज के दिन महाकालेश्वर के दर्शन का बड़ा माहात्म्य है. हो सके तो आ जाओ.’
दर्शन तो एक बहाना था. बुआ जी की नज़र में मेरे लिए कोई लड़का था. उसी सिलसिले में भैया ने अचानक जाने का प्रोग्राम बना लिया था. बोलकर तो यही गए थे कि शाम तक ज़रूर आ जाएंगे. पर अभी तक आए नहीं. आसमान में सावन की कजरारी घटाएं उमड़-घुमड़ रही थीं. रह-रहकर बिजली कड़क रही थी. लग रहा था जमकर बारिश होगी.

मैं बेसब्री से भैया के आने की राह देख रही थी. तभी फ़ोन की घंटी बजी

भैया का ही फ़ोन था. कहने लगे,‘रानू आज दिव्या सोमवार के कारण महाकाल मंदिर में बड़ी भीड़ थी. कई घंटे लाइन में लगे रहने के बाद नंबर आया. आज बुआ यहीं उनके घर पर रुकने के लिए ज़ोर दे रही हैं. हम सुबह जल्दी आ जाएंगे. आज सुखिया को तुम वहीं रोक लेना. एक रात की ही तो बात है.’
‘ठीक है भैया, जल्दी आना.’ इससे अधिक क्या कहती? मां-बाबूजी के देहांत के बाद भैया ने ही मुझे पाल-पोसकर बड़ा किया. पढ़ाया-लिखाया. मेरे ही कारण उन्हें अपनी शादी भी जल्दी करनी पड़ी थी, ताकि घर के कामकाज में लगे रहने के कारण मेरी पढ़ाई का नुक़सान न हो. भाभी भी मेरी सहेली जैसी ही थी. ज़िंदगी बड़े मज़े से गुज़र रही थी.
इधर कुछ दिनों से भैया को मेरी शादी की चिंता खाए जा रही थी. कहते,‘समय रहते तेरे हाथ पीले कर दूं तो मुझे चैन मिले. नहीं तो लोग कहेंगे कि जवान बहन घर में बैठी है और इन्हें कोई चिंता नहीं. आज मां-बाबूजी होते तो…’ बस यहां आकर भैया भावुक हो जाते.
मैं लाख कहती,‘भैया मैं यह घर छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी.’ पर मेरी सुनता ही कौन? झट कह देते,‘रहने दे, सभी लड़कियां शुरू में ऐसा ही कहती हैं और फिर शादी करके ख़ुशी-ख़ुशी ससुराल के लिए विदा हो जाती हैं.’
मैं नहीं चाहती थी कि भैया पर बोझ बनूं इसलिए पढ़ाई पूरी करते ही मैंने अपने लिए नौकरी की खोज भी शुरू कर दी थी. इंटरव्यू कॉल भी आने लगे थे.
मैं इसी सोच में डूबी हुई थी कि तेज़ी-से बौछारें पड़ने लगीं. तभी घंटी बजी. इतनी बारिश में कौन हो सकता है? सोचती हुई मैं उठी और सेफ़्टी चेन लगाकर दरवाज़े की दरार से झांका. बाहर अटैची लिए एक युवक खड़ा था. उम्र यही कोई २८-२९ साल. मुझे देखकर उसने नमस्कार करते हुए पूछा,‘माला दीदी हैं?’

भाभी तो आज भैया के साथ उज्जैन गई हैं,’ मैंने दरवाज़े के पीछे से ही कह दिया.

उसके चेहरे पर निराशा का भाव था. फिर मेरी सवालिया नज़रों को देख उसने सकपकाते हुए कहा,‘मैं राहुल हूं. माला दीदी मेरी मौसेरी बहन हैं. दीदी की शादी में मैं अपनी परीक्षा के कारण नहीं आ पाया था इसलिए मुझे आप नहीं पहचान पा रही हैं.’
वह बाहर बारिश की तेज़ बौछारों से भीगा कांप रहा था. बड़े संकोच से उसने पूछा,‘माला दीदी नहीं हैं तो क्या आप मुझे अंदर आने के लिए भी नहीं कहेंगी?’
मैंने दरवाज़ा खोलकर किनारे खिसकते हुए कहा,‘क्यों नहीं? आइए.’
अंदर आकर भी वह दरवाज़े पर ही ठिठक गया, क्योंकि उसके तर-ब-तर कपड़ों से लगातार पानी से सारा फ़र्श गीला हो गया था. उसने वहीं से कैफ़ियत देते हुए कहा,‘मैं एक मीटिंग में इंदौर आया था. माला दीदी से बहुत सालों से मिलना नहीं हुआ था, सोचा आज मिलता चलूं.’
उसकी घबराहट देख मुझे शरारत सूझी. मैंने पूछा,‘अगर आपको मालूम हो जाता कि भाभी आज यहां नहीं हैं तो क्या आप नहीं आते?’
अब तक वह भी कुछ कुछ सहज होने लगा था. उसने भी शरारत से ही जवाब दिया,‘हां, वैसे तो नहीं आता… पर हां, अगर यह मालूम हो जाता कि दीदी की एक सुंदर-सी, नटखट-सी ननद भी है तो ज़रूर आता.’
सुनकर अच्छा लगा, पर अपने मनोभाव छुपाते हुए मैं मुड़ गई और अंदर भैया की अलमारी से तौलिया और कुर्ता-पायजामा निकालकर उसे थमाते हुए बोली,‘प्लीज़, बाथरूम में जाकर चेंज कर लीजिए, तब तक मैं चाय बनाती हूं.’
मैंने रसोई में जाकर उसके लिए अदरक की चाय बनाई, साथ ही सुखिया को मैंने खाना बनाने के लिए कह दिया.
तब तक वह कपड़े बदलकर आ गया. हम दोनों चुपचाप चाय पीने लगे. चुप्पी तोड़ते हुए इस बार भी उसी ने बात आगे बढ़ाई,‘आपने तो अभी तक अपना नाम भी नहीं बताया है.’

रानू’ मैंने कहा. पर मन ही मन मैं सोच रही थी कि मेरी शादी के लिए लड़के तलाशते हुए भाभी को कभी राहुल का ख़्याल क्यों नहीं आया? आने दो कल भाभी को. मैं ख़ुद ही लाज-शरम छोड़कर भाभी को कह दूंगी कि मुझे तो आपका भाई राहुल पसंद आ गया है. राहुल भी शायद इस रिश्ते के लिए ‘ना’ नहीं कहेगा. मन ही मन यह निर्णय लेते ही मुझे ऐसा लगने लगा जैसे मैं राहुल की वाग्दत्ता हो गई हूं. मन के किसी कोने में शहनाइयां-सी बजने लगीं.
तभी सुखिया ने आकर कहा,‘दीदी डाइनिंग टेबल पर खाना लगा दिया है. आ जाइए.’
इसके बाद दिनभर की थकी हुई सुखिया कमरे के बाहर गलियारे में बिस्तर बिछाकर सो गई.
दूर कहीं एक कड़क के साथ बिजली गिरी और अचानक लाइट चली गई. मैंने जल्दी से मोमबत्ती जलाकर टेबल पर लगाई और चुटकी लेते हुए कहा,‘आइए जनाब कैंडल लाइट डिनर पर आपका स्वागत है.’
राहुल भी लगता है वाक्चातुर्य में पीछे नहीं रहना चाहता था,‘जब चांद-सा रौशन चेहरा सामने हो तो कैंडल लाइट की भी क्या ज़रूरत है? बुझा दो इन्हें भी ख़ुशी की बज़्म में क्या काम है जलनेवालों का?’
राहुल के मुंह से अपने लिए यह सुनना कितना अच्छा लग रहा था! इस क्षणिक मुलाक़ात में ही राहुल अपने विनोदी स्वभाव के कारण कितना अपना-सा लगने लगा था! और फिर इस सावन की रात में माहौल भी कितना रूमानी हो गया था. मोमबत्ती की मद्धम रौशनी में राहुल की प्लेट में आग्रहपूर्वक खाना परोसते हुए मेरे हाथ उसके हाथों से टकराते रहे. हो सकता है जानबूझकर भी दोनों ओर से ऐसा हो रहा हो.
डिनर के बाद हम दोनों सोफ़े पर बैठकर गप्पें लगाते रहे. यहां-वहां की, न जाने कहां कहां की बातें. राहुल का विनोदी स्वभाव मुझे हंसा-हंसाकर लोटपोट करता रहा. मुझे याद नहीं, मैं कभी इतना खुलकर हंसी होऊं.
बातों में मशगूल न जाने कब राहुल की बांहें सोफ़े के पीछे से हौले-हौले मेरे कंधों को स्पर्श करने लगीं मालूम ही नहीं पड़ा. और झूठ क्या बोलूं, मुझे भी यह अच्छा ही लग रहा था. इस दिव्या रात में मानों मैं स्वयंवरा बन गई थी. बस कल भैया-भाभी के आते ही इस संबंध पर रिश्ते की मुहर लगवाने में देर नहीं करूंगी. राहुल की आंखों में जो नशा उतर रहा था उससे लग रहा था कि मैं भी उसकी पसंद पर खरी उतरी हूं.
इधर मेरी ओर से कोई प्रतिकार न होता देख राहुल और क़रीब और क़रीब आता जा रहा था. पर तभी एक झटके से मानों नींद से जागी. मेरे संस्कारों में शादी से पहले इस तरह के संबंध बनाना गवारा नहीं था. मैंने उसे और आगे बढ़ने से रोकते हुए कहा,‘नहीं राहुल अभी नहीं. कल भैया-भाभी आ जाएं. पहले वे इस रिश्ते को ओके कर दें. फिर बारात लेकर आने में देर न करना, समझे?’ मैंने उसके कान खींचते हुए कहा.
राहुल को जैसे कोई करंट लगा हो. बग़ैर कुछ कहे वह एकदम से उठ खड़ा हुआ और दरवाज़ा खोलकर बालकनी में चला गया. मैंने सुखिया को गहरी नींद से जगाया और अपने कमरे में सुला लिया. राहुल बाद में वहीं ड्राइंग रूम में सोफ़े पर आकर सो गया.
पर मेरी आंखों में नींद कहां थी? मन ही मन राहुल को लेकर सपने बुन रही थी. लग रहा था मुझे मेरी मंज़िल मिल गई है. कुछ ही घंटों में राहुल मुझे कितना अपना-सा लगने लगा था. भैया-भाभी की ओर से इस रिश्ते को नकारने का तो कोई सवाल ही पैदा नहीं होता. कल्पनाओं में मैं राहुल की परिणीता बनी इतराती रही.
सुबह-सुबह थोड़ी झपकी लगी होगी कि मैं अचकचाकर उठी. बारिश थम चुकी थी. सुखिया किचन में रात के बर्तन समेट रही थी. मैंने चारों ओर नज़र दौड़ाई. राहुल कहीं नज़र नहीं आया. मुझे लगा बाथरूम में होगा. बाथरूम में भैया का कुर्ता पायजामा टंगा था, जो राहुल ने रात को पहना था. इधर उसकी अटैची भी नहीं दिखाई दी.
मैंने सुखिया को पुकारा,‘सुखिया तुम्हारे मेहमान कहां गए? ज़रा चाय तो बना दो उनके लिए.’
‘दीदी वो तो मुंह अंधेरे ही उठकर चल दिए. मुझे कहा कि मेरी सुबह की ट्रेन है इसलिए चलता हूं. आपको उठाने लगी तो उन्होंने मना कर दिया कि रहने दो, मैं फिर आऊंगा.’
मैं मन ही मन मुस्कुराई कि राहुल मुझे मालूम है तुम बार-बार वापिस आओगे. पर मुझे अच्छा नहीं लगा कि राहुल मुझसे मिले बग़ैर कैसे चला गया? तभी सोफ़े के कुशन के नीचे दबे क़ागज़ पर मेरी निगाह पड़ी. एक ही सांस में मैं पढ़ गई. लिखा था-गुस्ताख़ी करने जा रहा था. अच्छा हुआ तुमने बहकते क़दमों को रोक दिया. थैंक्यू. बग़ैर मिले जा रहा हूं. माफ़ करना. तभी दरवाज़े पर भैया-भाभी के आने की आहट आई. वादे के मुताबिक़ वे पहली बस से ही दौड़े चले आए थे. बहुत ख़ुश नजर आ रहे थे. आते ही भाभी ने उत्साह में भरकर कहा,‘रानू, जल्दी से नहाकर तैयार हो जाओ. लड़केवाले आज ही तुम्हें देखने आ रहे हैं. मैंने उन्हें लंच पर बुला लिया है. सब साथ ही मिलकर खाना खाएंगे.’
फिर भाभी मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए बग़ैर किचन में घुस गई और सुखिया को बताने लगी कि आज खाने में क्या-क्या बनेगा. मेरी बात सुनने की भाभी को फ़ुरसत ही नहीं थी. मैं अपनी बात कहने के लिए उनके पीछे-पीछे घूमने लगी. पर भैया के सामने कहने की हिम्मत नहीं हुई.
जब भाभी कपड़े बदलने अपने कमरे में गई तो मैं भी उनके पीछे-पीछे चल दी. समझ नहीं आ रहा था कि बात कहां से शुरू करूं? बड़े संकोच से मैंने कहना शुरू किया,‘भाभी, कल आपकी मौसी का लड़का यहां आया था… हां क्या नाम है उसका…?’ मैंने बनते हुए पूछा.
‘कौन राहुल? कैसे आना हुआ उसका? अकेले ही आया था या उसकी बीवी भी साथ थी?’ भाभी ने साड़ी को तह करते हुए पूछा.
‘राहुल की बीवी?’ सुनते ही मैं मानो आसमान से ज़मीन पर आ गिरी.
भाभी मेरी ओर पीठ किए अलमारी में से कपड़े निकाल रही थीं. उन्हें मेरी इस हालत का बिल्कुल अंदाज़ा नहीं था.
पर मैंने जल्दी ही अपने आप को संभाल लिया और कहा,‘आया तो अकेला ही था. सुखिया ने बढ़िया खाना बनाकर खिला दिया था. रात को वहीं सोफ़े पर सो गया और सुबह न जाने कब चला गया, मालूम ही नहीं पड़ा. जाते समय मिलकर भी नहीं गया,’ मैं बड़ी सफ़ाई से सारी बातें छुपा गई. अब कहने को क्या बचा था?
कोई बात नहीं. उससे तो मैं बाद में निबटूंगी. चल अब तू जल्दी से तैयार हो जा. आज मेरी यह गुलाबी सिल्क साड़ी पहन लेना. तुझपर बहुत खिलती है.’ कहते हुए भाभी ने पलंग पर साड़ी रख दी और कमरे से निकल गई.
मेरे सर पर हज़ारों हथौड़े बरस रहे थे. मुझे ग़ुस्सा आ रहा था कि राहुल ने मुझसे यह बात क्यों छुपाई कि वह शादीशुदा है? हां, पर मैंने ही उससे यह कब पूछा था? या उसे यह सब बताने का मौक़ा ही कहां दिया? यह भावनाओं का ज्वार था या मौसम का ख़ुमार? या अचानक मिले एकांत का लाभ उठा लेने का लोभ? या फिर मेरे अन्तर्मन में छुपी यह भावना कि जल्दी से जल्दी मेरी कहीं शादी तय हो जाए, ताकि भैया मेरी चिंता से मुक्त हो जाएं? क्या यही सोचकर मैं इस दिव्या रात में स्वयंवरा बनने को आकुल हो गई थी? पर राहुल स्वयं शादीशुदा होते हुए मौक़े का फ़ायदा नहीं उठा रहा था क्या? मुझे ख़ुद पर ग़ुस्सा आ रहा था कि क्यों मैंने एक अजनबी पर इतना विश्वास किया कि उसे जीवनसाथी बनाने के सपने देखने लगी! पर फिर भी, अभी तो कुछ नहीं बिगड़ा था. मैंने ख़ुद को एक फिसलन भरे रास्ते पर फिसलने से रोक लिया था, इस अनुभूति से मुझे जो राहत मिली उसे मैं बयान नहीं कर सकती. साथ ही रात की उस घटना ने मुझे यह सबक दिया कि कभी भी, कहीं भी कोई भी, किसी भी रूप में हमारा फ़ायदा उठा सकता है, उसका प्रतिकार करने का हममें साहस होना चाहिए.
मैं न जाने कितनी देर तक इसी अन्तर्द्वन्द्व से जूझती रही. तभी भाभी ने आकर कमरे में झांका,‘अरे रानू, तू तो अभी तक वैसी की वैसी बैठी है? कब तैयार होगी? देख वो लोग तो आ भी गए हैं.’
ड्रॉइंग रूम से मेहमानों के आने की हलचल की आवाज़ें आ रही थीं. मैंने गुलाबी सिल्क की साड़ी पलंग से उठाते हुए कहा,‘बस भाभी, मैं जल्दी से तैयार होकर अभी आई.

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